ज़िन्दगी की कहानी / जानकीवल्लभ शास्त्री
ज़िन्दगी की कहानी रही अनकही,
दिन गुज़रते रहे, सांस चलती रही।
अर्थ क्या? शब्द ही अनमने रह गए,
कोष से जो खिंचे तो तने रह गए,
वेदना अश्रु, पानी बनी, बह गई,
धूप ढलती रही, छाँह छलती रही।
जो जला सो जला, ख़ाक खोदे बला,
मन न कुन्दन बना, तन तपा, तन गला,
कब झुका आसमाँ, कब रुका कारवाँ,
द्वन्द्व दलता रहा, पीर पलती रही।
बात ईमान की या कहो मान की,
चाहता गान में मैं झलक प्राण की,
साज सजता नहीं, बीन बजती नहीं,
उँगलियाँ तार पर क्यों मचलती रहीं।
और तो और, वह भी अपना बना,
आँख मून्द रहा, वह न सपना बना।
चान्द मदहोश प्याला लिए व्योम का,
रात ढलती रही, रात ढलती रही।
यह नहीं जानता मैं किनारा नहीं,
यह नहीं, थम गई वारिधारा कहीं।
जुस्तजू में किसी मौज की, सिन्धु के
थाहने की घड़ी किन्तु टलती रही।