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ज़िन्दगी के चन्द लम्हे... / देवी नांगरानी

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ज़िंदगी से चन्द लम्हें मैं अब चुराकर लाई हूँ

मौत को ही मीत अपना अब बनाकर आई हूँ ।


शिद्दतें देखी थी पहले पर कभी ऐसी न थी

याद से उनकी मगर रिश्ता निभाकर आई हूँ ।


गर्दिशों की गर्द से होते नहीं हिम्मत-शिकन

ख़ून से तलवों पे मेंहदी मैं सजाकर आई हूँ ।


जूझना मुमकिन तो है इस जान-लेवा दौर में

ख़ुदकुशी करने से ख़ुद को बस बचाकर आई हूँ ।


सैकड़ों थे ज़िंदगी से यूँ हमें शिकवे-गिले

पर तेरे इसरार से सारे भुलाकर आई हूँ ।


याद के जुगनू अंधेरों को मिटा देंगे मगर

राह में तेरी दिया मैं इक जलाकर आई हूँ ।


जिस तराज़ू में था तोला, मुझ पे वो भारी पड़ा

मोल उसका मैं मगर सारा चुका कर आई हूँ ।


श्रद्धा और विश्वास के वो भाव मैं लाऊं कहाँ से

सजदे में सर को मैं अपने बस झुकाकर आई हूँ ।


गर्द है चेहरे पे देवी यूँ उदासी की जमी

जीते जी अपना ही मातम ख़ुद मनाकर आई हूँ ।