भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

ज़िन्दगी रेत-सी फिसलती है / पंकज कर्ण

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

ज़िन्दगी रेत-सी फिसलती है
हाँ! मगर प्यार ले के चलती है

जब धुआँ झोपड़ी से है उठती
ये इमारत भी यार जलती है

फ़ैसला है यही अदालत का
सबकी किस्मत कहाँ बदलती है

ढा रहा है सितम, सितमगर फिर
ये मोहब्बत मगर मचलती है

है अँधेरा भले घना 'पंकज'
रोशनी तो न हाथ मलती है