भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

ज़ियादा प्यार से देखा न जाये / नज़ीर बनारसी

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

जियादा प्यार से देखा न जाये
मुसाफिर लौट कर फिर आ न जाये

हटा लो सामने से मै की बोतल
मिरी तोबा कहीं टकरा न जाये

मना कर रास्ते में जश्ने मंजिल
हमारा रास्ता रोका न जाये

न दो दादे-जूनूँ <ref>पागलपन की तारीफ</ref> ऐ अक्ल वालो
कहीं दीवाना भी काम आ न जाये

मुहब्बत भी अगर है जुर्म यारो
तो मैं मुजरिम मुझे बख्शा न जाये

हर इक शै से तबीयत हट रही है
कहीं उनसे भी जी घबरा न जाये

बचाओ आबरू-ए-आदमीयत
मुहब्बत को सियासत खा न जाये

बहुत कुछ है नसीमें सुबहगाही <ref>सवेरे की हवा</ref>
अगर दिल की कली मुरझा न जाये

जलन कुछ कम तो हो जायेगी दिल की
वहॉं तक आह जाये या न जाये

मुसीबत भी दे राहत देने वाले
मगर इतनी कि जी घबरा न जाये

’नजीर’ इन्सान ही हैं मुहतरम <ref>श्रेष्ठ, पूज्य</ref> भी
उन्हें भी बेखता समझा न जाये

शब्दार्थ
<references/>