भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

जाड़े की ऋतु / मुस्कान / रंजना वर्मा

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

थर थर करती बदन कँपाती
ऋतु जाड़े की आयी रे॥

जेठ असाढ़ गया सावन की
रिमझिम भी अब बीत गयी।
काले काले मेघों की जल
भरी गगरिया रीत गयी॥

जाड़े ने देखो गर्मी की है दीवार गिरायी रे।
थर थर करती बदन कँपाती ऋतु जाड़े की आयी रे॥

आँख मिचौली सूरज दादा
कभी बादलों से खेले।
कभी लगा देते हैं बादल
नीले अम्बर में मेले।

काले काले मेघों ने सूरज की धूप चुराई रे।
थर थर करती बदन कँपाती ऋतु जाड़े की आयी रे॥

सन्दूकों से स्वेटर मोजे
कोट पैंट बाहर आये।
गरम चाय की बढ़ी ज़रूरत
जो थोड़ा तन गरमाये।

गरम पकौड़े चाट मसाले वालों की बन गयी रे।
थर थर करती बदन कँपाती ऋतु जाड़े की आयी रे॥

ठंढी हवा तीर-सी लगती
जब सन-सन कर चलती है।
ऐसी ठंढी ऋतु में यारों
बहुत पढ़ाई खलती है॥

कैसे पढ़ें हमें सरदी में अच्छी लगे रजाई रे।
थर थर करती बदन कँपाती ऋतु जाड़े की आयी रे॥