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जाड़े की धूप / कुमार रवींद्र
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गुनगुनी है जाड़े की धूप
सेंक रहीं अलसाई भेड़ें
मुँह में हैं
चबा रहीं ओस
पीठ पर लादे सुखी बादल
गरमी से भरी हुई मन की
घास रहीं दाँत से मसल
वहीं कहीं बजती वंशी को
सुनती हैं धूप-सिंकी मेड़ें
पास किसी मध्ययुगी नायक-सा
पीपल के तने से टिका
खड़ा हुआ भोर का गड़रिया
जिसका हर साँस है सिंका
देख रहा मन्दिर के घंटों में
पूजातुर सपनों के खेड़े
ऊपर बर्फ़ीली चट्टान तक
जलते हैं धूप के अलाव
पेड़ों की छाँव तले ठिठके
अँधियारी ठंडक के ठाँव
कूद रहे घाटी में सभी ओर
किरणों के ऊधमी बछेड़े