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जाड़े के दिनों में / नरेश अग्रवाल
Kavita Kosh से
जैसे-जैसे धूप बढ़ती है
एक दादी माँ
आकर बैठ जाती है
उस जगह
सजा- सँवरा उसका चेहरा
निश्चिन्त, जैसे अब
कोई काम नहीं बचा जिन्दगी का
देखती रहती है
आते-जाते लोगों को
जिसने हाल-चाल पूछा,
उससे बतला लिया
या चुपचाप बैठी रही,
इन्तजार किया
फिर से छाँव आने का
इसी तरह धूप-छाँव में
बीत जाता उसका दिन ।