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जाड़े में पहाड़ (नवगीत) / बुद्धिनाथ मिश्र

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फिर हिमालय की अटारी पर
उतर आए हैं परेबा मेघ
हंस जैसे श्वेत भींगे पंखवाले ।

दूर पर्वत पार से मुझको
है बुलाता-सा पहाड़ी राग
गर्म रखने के लिए बाक़ी
है बची बस काँगड़ी की आग ।

ओढ़कर बैठे सभी ऊँचे शिखर
बहुत मँहगी धूप के ऊनी दुशाले।

मौत का आतंक फैलाती हवा
दे गई दस्तक किवाड़ों पर
वे जिन्हें था प्यार झरनों से
अब नहीं दिखते पहाड़ों पर ।

रात कैसी सर्द बीती है
कह रहे क़िस्से सभी सूने शिवाले ।

कभी दावानल, कभी हिमपात पड़ गया
नीला वनों का रंग
दब गए उन लड़कियों के गीत
चिप्पियों वाली छतों के संग ।

लोकरंगों में खिले सब
फूल बन गए खूँखार पशुओं के निवाले।