जादुई यथार्थवाद और खद्योत प्रकाश / नीलाभ
क्या आपने खद्योत प्रकाश का नाम सुना है ?
एक ही समय में, एक ही शरीर में, बयकवक़्त मौजूद
बच्चा, किशोर, नौजवान और वृद्ध ।
कहानी की अति प्राचीन विधा का सबसे नया,
सबसे अनोखा जादूगर जो तब्दील कर देता है
क़िस्सों को ज़िन्दगी में और ज़िन्दगी को कहानियों में
और दोनों को सपनों या दुःस्वप्नों में
(जैसा उस वक़्त उसका मूड हो)
ऐसी कुशलता से कि आप जान नहीं पाते सच क्या है,
है भी या नहीं ।
वैसे खद्योत प्रकाश के मुताबिक़ सच का कहानी से क्या ताल्लुक़
और क्या ताल्लुक़ उसका ज़िन्दगी से;
आख़िर सब कुछ माया ही तो है न ।
तो समझ लीजिए, खद्योत प्रकाश ने
माया की महिमा के महामन्त्र को सिद्ध कर लिया है ।
वह छली है, छलिया है, परम मायावी है,
भूत और वर्तमान के कन्धों पर सवार भावी है
इस सब को मिला कर अपना अलौकिक अंजन तैयार करता हुआ
जिससे वह आपका मनोरंजन भी करता है ज्ञानरंजन भी,
आपको शोकग्रस्त भी करता है अशोकग्रस्त भी ।
इस अंजन को अब वह पेटेण्ट कराने की साच रहा है
जब से भारत के बड़े-बड़े भारद्वाजों से भी उसने
अपने दर पर मत्था टेकवा लिया है ।
बहरहाल, वापस आएँ,
अगर आपने इस यातुधान का नाम नहीं सुना
तो आप जादूई यथार्थवाद के बारे में भी नहीं जानते होंगे ।
लेकिन चिन्ता की कोई बात नहीं,
जादुई यथार्थवाद कुछ-कुछ ईश्वर की तरह है,
आप ईश्वर को जानें या न जानें, या फिर मानें या न मानें,
अगर वह है तो आप कुछ नहीं कर सकते,
नहीं है तो भी आप कुछ नहीं कर सकते,
लिहाज़ा जादूई यथार्थवाद एक क़िस्म का जादू है,
ईश्वर की तरह, हमारे संसार के बिम्ब की तरह,
एक प्रति-संसार की तरह ।
इस जादुई संसार में सब कुछ सम्भव है ।
सम्भव है एक ही आदमी के भीतर,
एक ही समय में मौजूद हों
सन्त और सौदागर, कवि और क़ातिल,
क़यामतसाज़ और क़यामत का मसीहा,
जैसे हर विकास के पेटे में होता है विनाश,
हर विनाश लिए चलता है अपनी नाभि में
नए ब्रह्माण्ड की सम्भावना ।
इस जादुई संसार में सम्भव है जो कौर आप खा रहे हों
वह पुष्ट कर रहा हो आपके हत्यारे को, ,
जो निवाला बना रहा हो अपने ही लोगों को
वह निवाला हो किसी और भी बड़े पेटू का ।
और यह समय परीकथाओं वाला, बहुत दिन हुए वाला,
एक बार की बात है वाला समय नहीं है,
अपना यही हैरतअंगेज़, लेकिन परम विश्वसनीय समय है,
जिसमें पाखण्ड का पर्दाफ़ाश करने वाले शिकार हुए
अपनी करनी का नहीं, बल्कि अपनी कथनी का ।
जो अपने शान्त शरण्यों में बैठे प्रलय का प्राक्कथन लिख रहे थे,
वे इस तरह प्रलयंकारियों के प्रिय पात्र बन गए
जैसे बन जाता है प्रिय पात्र एक सिंह दूसरे सिंह का
जब हिरनों और बकरियों को खाने की बारी आती है ।
मिट रहे हैं हम, मिट रहे हैं हम की गुहार लगाते कवि,
आहिस्ता से दाख़िल हो गए उसी समय के ऐसे हिस्से में
जहाँ उन्हें चीख़ें भी नहीं सुनाई देती थीं मिट रहे लोगों की ।
शास्त्रीय फ़नकारी के बीच हरमुनिया के सुरों पर
बचाओ-बचाओ का शोर मचाते हुए वे बचा लिये जाते थे
उनकी कृपा से जिनसे बच नहीं पा रहे थे
इस देश के जंगल, नदियाँ, खेत और किसान ।
मलयेशियाई लकड़ी के फ़र्नीचर और
सारे आधुनिक उपकरणों से सज्जित
अपने तीसरे नए मकान में कवि की नींद
बार-बार टूट जाती थी गद्दे पर बिछी रेशमी चादर पर भी
जब किसान-मज़दूर नहीं, किसान-मज़दूरों का कोई आवारा ख़याल
भटकता हुआ चला आता था अतीत के किसी गुमगश्ता गोशे से ।
अनिद्रा और ऊब के बीच ऊभ-चूभ करता
वह सोचता क्यों हैं, आख़िर क्यों हैं ये लोग अब भी
अम्बानी और अज़ीम प्रेमजी, मोनटेक और मनमोहन की
इस भारत भूमि में, कील की तरह गड़-गड़ जाते हुए
जब वह बाँहों में लिए प्रियंका चोपड़ा या कैटरीना कैफ़ को
चुम्बन लेने जा रहा होता। सपने में ।