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जानकी रामायण / भाग 22 / लाल दास

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चौपाई

किछ दिन मधुपुर यमुना तीर। कयल निवास मुदित यदुवीर॥
नित नव नव कौतुक सुखजानि। करयि कृष्ण भक्तक भल जानि॥
सभ जनकाँ बाढ़ल बड़ प्रेम। राखथि कृष्ण दया दृढ़ नेम॥
एक दिन यादव आदिक लोक। कहल कृष्णसैं मानस शोक॥
ईश्वर अंश अहाँ यदुवंश। अयलहुँ करय कंस विध्वंस॥
ये ये दुष्ट देल महिभार। तनि सबहिक कयलहुँ संहार॥
सुर नर मुनि सभ स्वस्थ भेलाह। हमरा रहल मनक एक चाह॥
करयित छथि सभ वेद पुरान। स्वर्ग लोक केर अधिक बखान॥
से सभकाँ इच्छा देखबाक। करु परिपूरित आश सुबाक॥

दोहा

सुनि यदुपति अति हित कथा देखि सभक आवेश।
स्वर्गलोक जयबाक हित कहल बेश बड़ बेश॥

चौपाई

आक्रू रहि कहलनि भगवान। पुष्पक रथ साजू सविधान॥
मथुरावासी जनसमुदाय। लय चलु सुरपुर सबहि चढ़ाय॥
सुनि हरि-वचन भक्त अक्रूर। रथ चढ़ाय कयलनि परिपूर॥
तेहिपर कृष्ण भेला असबार। पहुँचल रथ झट स्वर्गक द्वार॥
मथुरा नगर निवासी लोक। लगला भ्रमण करय बिनु रोक॥
सात स्वर्ग देखल घुमि-घुमि। तखन गेला नरकक लग जूमि॥
पापी सभक सुनल कल्लोल। त्राहि त्राहि करयित अतिघोल॥
सुनि कीर्त्तत कयलनि हरिनाम। पापीकाँ भेल मुक्तिक ठाम॥
सुनल नरकबासी हरिनाम। जरि गेल तनिक पाप परिणाम॥
बड़ बलिष्ठ भेल विष्णु प्रसाद। यमसौं पड़ि गेल प्रबल प्रमाद॥
पापी मुक्त चलल हरि-लोक। पकड़ल यमगण भय गेल रोक॥
यमकाँ सकल मुक्त खिसिआय। मारि दण्डसौं देल हराय॥
सभ स्वच्छन्द गेला हरिधाम। सुखसौं ततय कयल विश्राम॥
हरिनामक महिमा जन देखि। क्षुब्ध भेला हृदि हर्ष अलेखि॥

दोहा

मथुरावासी लोक सभ एहि विधि अति स्वच्छन्द।
हरि-प्रसाद सर्वत्र घुमि रहथि सदा आनन्द॥

चौपाई

ब्रजमे एतय बढ़ल बड़ शोक। कृष्ण-विरह व्याकुल सभ लोक॥
नन्द यशोमति ग्वालिनि गोप। ग्वाल-बाल सबहिक मति लोप॥
पशु पक्षी जड़ जंगम जीव। कृष्ण बिना सभ दुखित अतीव॥
कि कहब राधा हृदयक आधि। विरहक लगल प्रचण्ड समाधि॥
संयम अन्न पानि भेल त्याग। बाढ़ल नियम कृष्ण अनुराग॥
शुष्क समिध-सम देह विभागि। विरह आगि तेहिमे गेल लागि॥
कृष्ण-प्रेम-घृत आहुति पड़य। धधकि उठय ज्वाला अति बढ़य॥
वरषय निशि दिन नोर सदाय। नहि तथापि से अनल मिझाय॥
कृष्ण दरश आशा मन लाग। तेँ तन प्राण करय नहि त्याग॥
एहि विधि सभदिन तेजस पुंज। करथि यज्ञ राधा रहि कुंज॥
कृष्णक विरह अनल अधिकाय। शुद्ध करथि तन कंचन पाय॥
निशि दिन करितहि रहथि विलाप। कृष्ण विोग असह संताप॥
जखन विरह दुख सहि नहि भेल। तखन सखी सभ अनुमति देल॥
राधा यज्ञक शुभ उद्योग। कयल निमंत्रण-पत्र प्रयोग॥
यज्ञपुरुष थिक तनिके नाम। अओता अवश तखन एहि ठाम॥
यज्ञ देखय मधुपुरी गेलाह। एतहु यज्ञ सुनितहि अओताह॥
सैह भेल सिद्धान्त नितान्त। राधा लिखल पत्र एकान्त॥
वृन्दा नामक सखी प्रधान। कृष्ण निकट कयलनि प्रस्थान॥
जमुना तीर जखन अयिलीह। बिनु नाबेँ अति विकल भेलीह॥
लगलिह करय कृष्ण पर ध्यान। कानथि विलपति विविध विधान॥
स्तुति कृष्णक कयलनि अकुलाय। प्रीति रीति कति विधि मन लाय॥

रूपमाला छन्द

कृष्ण अपने थिकहुँ त्राता सुखविधाता सार।
दीनबन्धु अपार भवसौं अहिँ करी निस्तार॥
अहँक सन्निधि गमनमे भेल विघ्न यमुनाधार।
कर्णधार अपार जगतक पार करु एहि बार॥

चौपाई

एहि विधि वृन्दा गोचर कयल। ततहि कृष्ण नटवर-वपु धयल॥
चढ़ले नाव पुछल यदुवीर। कत अयलहुँ एकसरि एहि तीर॥
कह वृन्दे मोर प्राण-पियारि। छथि कोन विधि वृषभान-दुलारि॥
भेल बहुत दिन तकयित बाट। क्यौ नहि सुधि लेल लगल कपाट॥
बड़ उतकंठा हमरा भेल। तेँ अयलहुँ हम विरहक लेल॥
वृन्द कहल सुनु नन्दकुमार। अहँ बिनु अछि गोकुल अन्धार॥
राधाकाँ नहि बाँचत प्रान। करयित छथि तेँ यज्ञ-विधान॥
अहँकाँ लिखल निमंत्रणपत्र। पढु़ मन दय झट दय चलु तत्र॥
लेल कृष्ण पाँती हरषाय। पढ़थि नयनसौं नोर बहाय॥
बुझि राधाक विलाप-कलाप। यदुपतिकाँ बाढ़ल उर ताप॥
वृन्दासौं कहलनि घुरि जाउ। राधाकाँ सम्बाद सुनाउ॥
जेँ विधि हुनका व्यापल प्रेम। हमरहु तनिके प्रीतिक नेम॥
निशिदिन राधा-विरहक आगि। दग्ध करय अति तनमे लागि॥
राधा-प्रेम समुद्र समाय। मिझबै छी नहि ततहु मिझाय॥
ततय एकान्त समाधि लगाय। जययित छी हम गुण-समुदाय॥
सप्तपुरीमे मथुरा धाम। बड़ पुण्यद धर्म्मक विश्राम॥
ध्यानहि तनिक मिलन हो नित्य। जेहि सुखसौं हम छी कृतकृत्य॥
हम जायब मख देखय काज। जाउ अहाँ वृन्दा घुरि आज॥
कृष्ण भेला कहि अन्तर्द्धान। वृन्दा बन्दावन प्रस्थान॥

दोहा

कुंज-भवनमेँ जाय से कृष्ण मिलन सम्बाद॥
राधासौं कहलनि मुदित लागल घटय विषाद॥

चौपाई

ओतय कृष्ण मथुरा संचार। कयल मनहि मन एहन विचार॥
उद्धवकाँ ज्ञानक अभिमान। प्रतिनिधि हमर करथु प्रस्थान॥
देखता जखनहि गोपिक ज्ञान। होयतनि लोप ज्ञान-अभिमान॥
प्रगट कहल उद्धवसौं कृष्ण। अहँ बड़ ज्ञान-निधान सहिष्ण॥
हमर सखा अहँ छी अति शान्त। तेँ कहयित छी कथा एकान्त॥
जखन रही हम गोकुल गेह। गोपीसौं बड़ बढ़ल सिनेह॥
बिनु हमरे तनिका नहि चयन। हमहू तन्हि बिनु रही बेचैन॥
हम मधुपुर कयलहुँ प्रस्थान। ब्रजजन भय गेल मृतक समान॥
ओ सभ गोपी गोप गँवार। सहय हमर विरहेँ दुख भार॥
तनिकाँ ज्ञानक पंथ सुझाय। शान्त करू गोकुलमे जाय॥
सुनु उद्धव कहलनि बड़ बेश। हम छोड़ाय देब तनिक कलेश॥
ज्ञान-कथा सब देब बुझाय। सकल अविद्या देब नशाय॥
एहि विधि कहि पट-मुकुट लगाय। रथ चढ़ि उद्धव जुमला जाय॥
कृष्ण रथ भूषण पट देखि। गोपीकाँ भेल हर्ष अलेखि॥
भेल कृष्ण आगमनक घोल। अयिलिह व्याकुल गोपी गोल॥
कृष्णक तन्मय गोपी लोक। वाह्य विरह दुख व्यापित शोक॥
तनिका उद्धव ज्ञानक काण्ड। कहय लागु ब्रह्मक ब्रह्माण्ड॥
सुत बित पति जग मिथ्या कहल। ब्रह्म एक निश्चल मन गहल॥
सुनि गोपी कति निन्दा कयल। कृष्णक प्रेम प्रगट उर धयल॥

दोहा

गोपी उद्धवकाँ ततय भेल कतेक सम्बाद।
निर्गुण मत खण्डन कयल बढ़ल सगुण मर्य्याद॥