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जानकी रामायण / भाग 3 / लाल दास

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सोरठा

पुनि कहलनि भगवान, चक्र सुदर्शन हमर ई।
स्मरणहि करता त्रान, ऋषि शाादिक त्राश सौँ

चौपाई

शत्रुक भय रोगादिक दुष्ट। नहि होयत सुख पायब पुष्ट॥
ई कहि भेला अन्तर्धान। राजा नगर कयल प्रस्थान॥
पुरी अयोध्या रहि भल रीति। कयल प्रचार नृपति निज नीति॥
घर-घर कर सभ धर्मा चरण। वेद पाठ द्विज हरि सस्मरण॥
शतशत अश्वमेघ कति यज्ञ। करथि सदा महिपाल गुणज्ञ॥
शासन करथि जगत भल रीति। राखथि सतत प्रजा पर प्रीति॥
तृण-जल-फल भल नाना अन्न। सुलभ सदा सभकाँ सम्पन्न॥
रह आनन्द नृपक सभ देश। दुभिक्षक नहि कतहु प्रवेश॥
सुखित प्रजा सन्तत आरोग्य। नहि उत्पात लाभ सभ भोग्य॥
पुत्र पौत्र सन्तति कति बढ़य। शाक लाक चित्तमे नहि चढ़य॥
निर्भय जगत सतत आनन्द। हरि चर्चा सभकर स्वच्छन्द॥
एहि विधि हरि प्रसाद भूपाल। वसुधा शासन कर सभ काल॥

गीतिका

करथि पालन नृपति वसुधा उदय अस्त प्रमाण से।
परम तेज प्रताप निर्भर रहथि हस्त कृपाण से॥
सतत रक्षित रहथि से हरि दत्त चक्र सुदर्शने।
नहि शत्रु आदिक कतहु बाधा सुखित रह हरि दर्शने॥

चौपाई

अम्बरीष का कन्या एक। अति सुन्दरि गुण कहब कतेक॥
शुभ लक्षण सभ सौं सम्पन्नि। रमा अंश सौँ से उतपन्नि॥
श्रीमति नाम जगत विख्यात। नव यौवन भेल द्योतित गात॥
ऋषि नारद पर्वत तेहि ठाम। अयला एक दिन नृपति धाम॥
पूजा कय नृप कयल प्रणाम। ततय कयल दुहु मुनि विश्राम॥
नारद तेहि कन्या काँ देखि। मोह विवश परिहरल निमेषि॥
देखि तनिक सभ सुन्दर अंग। अम्बरीष काँ पुछल उमंग॥
के थिकि ई कन्या भूपाल। सुर कन्या सम सुन्दरि बाल॥
दुहिता हमर कहल महिपाल। हयत विवाह हिनक एहि काल॥
कहलनि नारद पाबि रहस्य। नृप हमरहि ई देव अवश्य॥
पर्वत कहलनि कान लगाय। हमरहि नृप कन्या देल जाय॥
दुहुक वचन सुनि नृपकाँ त्रास। विस्मित मन पुनि कहल प्रकाश॥
अहँ दुइ जन कन्या अछि एक। एहि में बढ़त विवाद कतेक॥
जौँ मानी मुनि हमर विचार। कन्या कथा करिय स्वीकार॥
दुहु में जनिकाँ कन्या चाह। एक व्यक्ति से करथु विवाह॥
वेश वेश नारद मुनि कहल। पर्वत सेही नृपक मत गहल॥
दुहु मुनि मानल नृपतिक वचन। नारद कयल युक्ति तहँ रचन॥
विष्णु लोक नारद गेलाह। कय एकान्त हरि सौँ बजलाह॥
हे हरि अम्बरीष भूपाल। करयित छथि पुत्रिक जयमाल॥
तेहि कन्या सौँ करब विवाह। पर्वत सेहो ओ करै छथि चाह॥
दुहुकाँ इच्छुक जानि नरेश। कहलनि तखन वचन बड़ वेश॥
दुहु में जनिकाँ सुन्दर जानि। कन्या वरय सैह पति मानि॥
नृपक कथा दुहुकाँ स्वीकार। तेँ हम झट अयलहुँ करतार॥
हम श्रीमति सोँ करब विवाह। पर्वत करयित अछि अधलाह॥
तेँ हम मंगयित छी वरदान। देल जाय हे कृपा निधान।
वानर सन मुख पर्वत मान। श्रीमति लखय लखय नहि आन॥
देल जाय वर दीन दयाल। जनु अन्यथा करी एहि काल॥

सोरठा

कहलहु हम एकान्त, पर्वत नहि बूझय चरित।
विहँसि कहल श्रीकान्त, सैह हय जे कहल अहँ॥

चौपाई

नारद हर्षित अयला जखन। पहुँचलाह पर्वत मुनि तखन॥
कय प्रणाम पुनि आद्योपान्त। कहलनि पर्वत सभ वृत्तान्त॥
पुनि कहलनि निज आशय शोक। नारद परम कलह प्रियलोक॥
करब विवाह मनोरथ साध। नारद विघ्न करै अछि बाध॥
हमर विनय सुनु हे भगवान। नारद मुख लंगूर समान॥
होइन्हि से नहि बूझय लोक। केवल श्रीमति बूझ अशोक॥
एतवर वर हमरा देल जाय। तनिक मनोरथ जाय नशाय॥
कहलनि हरि मांगल मुनि जैह। जाउ अयोध्या होयत सैह॥
दुहु मुनि अवधपुरी अयलाह। मंगल नृपति करय लगलाह॥
घर घर कर सभ मंगल साज। नर्त्तक नाचय बाजत बाज॥
ध्वज पताक पुनि वन्दन वार। सुमन माल लागल सभ द्वार॥
सभा सुरजित भेल विशेश। विष्टर आसन लागल वेश॥
पुरजन परिजन सभ अयलाह। बड़ उत्सव कन्याक विवाह॥
निज-निज आसन बैसला जानि। कन्या नृप लयला सनमानि॥
लक्ष्मी सनि श्रीमति अयिलीह। संग सुवासिनि कति लयलीह॥
चन्द्र बदनि कमलायत नयनि। कटि क्षीण सम कोकिल वयनि॥
वसन विभूषण भूषित देह। उद्योतित कयलनि सभ गेह॥

रूपमाला छन्द

सकल शोभा युक्त द्योतित रत्नमयि दीवाल।
व्यस्त सिंहासन सुरभियुत सुमन गुच्छ सुमाल॥
सकल मंडल मध्य राजित भेल वर भूपाल।
त्रिदश मध्य यथा विराजित इन्द्रपुर सुरपाल॥

सोरठा

ब्रह्मपुर ऋषिराज, वेद विदाम्बर ज्ञान निधि।
अयला सभा समाज, नारद मुनि पर्वत सहित॥

चौपाई

नारद पर्वत कयल प्रवेश। देखि परम आनन्द नरेश॥
कय प्रणाम आसन वर देल। पूजा कयलनि हर्षक लेल॥
दुहु देवर्षि परम विज्ञान। बैसला कन्या हेतु निदान॥
कहलनि नृप हे श्रीमति सुनिय। दुहु मुनि मे जनिकाँ शुभ गुनिय॥
तनिका वरिय जनिक उत्साह। सह एक करताह विवाह॥
कन्या तखन लेल जयमाल। मुनि मुख देखल विकृत विशाल॥
वानर सन देखि हटकि गेलीह। विस्मित मन चिन्तय लगलीह॥
कहल पिता सौँ सुनु हे तात। नहि नारद पर्वत एहि कात॥
जनिकाँ नारद पर्वत कहिय। तनिकर मुख बानर सम लखिय॥
परम भयंकर कहल न जाय। देखितहि मुख प्राणाँ उड़ियाय॥
हिन दुहु जनक मध्य हे भूप। देखयित छो एक रूप अनूप॥
तत दिति अतसी कुसुम समान। कुन्द कुसुम सन इन्त विधान॥
कम्बु कंठ कन्धर उर पीन। त्रिवली नाभि सुभग कहि क्षीन॥
कि कहब हिनक मनोहर अंग। देखितहि लज्जित कोटि अनंग॥
हमरा दिशि ताकथि मुसुकाथि। दक्षिण हस्त पसरितहि जाथि॥
नारद विस्मित भेला सुनि। पुछलनि श्रीमति सौँ मन गूनि॥
हे भद्रे कति भुज अछि ताहि। कहलनि देखयित छो दुई बांहि॥
पर्वत पुछलनि तनिका हस्त। की अछि पुनि वक्षस्थल न्यस्त।
कन्या कहल हृदय वनमाल। देखिपड़ कर शर धनुष विशाल॥

दोहा

सुनि मुनि दुहु चिन्ता कयल, के मायावी थोक।
बुझि पड़ हरि तस्कर थिकथि, ओ लम्पट निर्भीक॥