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जाने कैसे पिता ने पाला होगा? / महेश सन्तोषी

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फिक्र में डूबी हुई रातें
पसीने में लिपटे हुए दिन,
जाने मेरे पिता ने, मुझे कैसे पाला होगा?

फूलों की बस्ती में नहीं था हमारा घर,
दो-चार फूल तक नहीं थे रस्ते में,
पर, प्यार की खुशबू से भरा-भरा था घर,
हम जिन्दा फूल तो थे उस गुलिस्ताँ में
साथ में, मेरा एक छोटा भाई भी था
पास में भीं तीन छोटी बहनें
बस, प्यार ही प्यार था,
जो बिछा हुआ था हमारे बिछौने मंे, ओढ़ने में,
वर्षों हथेलियों में उनके चुभे तो होंगे काँटे,
जब घर के गुलाबों को हाथों से संभाला होगा,
जाने मेरे पिता ने, मुझे कैसे पाला होगा?

माँ के साथ का वह नाश्ता,
माँ के हाथों की दाँत-कटी रोटी,
वह ताज़्ज़ी पकी तुअर की दाल,
पिछली रात की बासी रोटी,
नाश्ता क्या था, वह तो अमृत था,
जिसकी कमी अब कहीं पूरी नहीं होती,
जो माँ खिला दे, वह खाना है,
माँ से पेट की भूख की दूरी नहीं होती
सबकी ज़रूरतें पूछती, ज़रूरतों दिन-रात जूझती,
एक-एक महिना माँ ने कैसे निकाला होगा?
जाने मेरा पिता ने मुझे कैसे पाला होगा?

गुज़र सकता तो हर रोज गुज़रता मैं,
उम्र की उस पहली सीढ़ी से
जहाँ पिता की उंगली पकड़े
एक पीढ़ी मिलती थी, दूसरी पीढ़ी से,
अगर मिल पाते मुझे वापिस
फिर से उम्र के पिछले हिस्से
भूल जाता मैं बाकी ज़िन्दगी सारी
जी लेता अपना बचपन फिर से,
ताज़ी साँसों-सी रहेगी,
मन में माँ की यादें,
प्राणों में पिता की ऊर्जा,
आँखों में उजाला होगा!
जाने मेरे पिता ने, मुझे कैसे पाला होगा?