भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

जितना जीता हूँ उतना मरता हूँ / कांतिमोहन ’सोज़’

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

जितना जीता हूँ उतना मरता हूँ ।
इस तरह सुबहो-शाम करता हूँ ।।

मैं भी जीता हूँ धौंकनी की तरह
साँस लेता हूँ आह करता हूँ ।

ज़िन्दगी मेरी जान लेती है
ज़ीस्त को मैं तबाह करता हूँ ।

एक जन्नत में दोज़ख़ी बनकर
तेरे कूचे से क्यूँ गुज़रता हूँ ।

अब तो मेरा कोई वुजूद नहीं
अब ज़माने को क्यूँ अखरता हूँ ।

बुलबुला बनके फूट जाता हूँ
और क़यामत से बच निकलता हूँ ।

सोज़ मैं तो रवा-रवी<ref>जल्दी, हड़बड़ी</ref> में हूँ
क्यूँ तेरे दर पे जा ठहरता हूँ ।।

1-9-2015

शब्दार्थ
<references/>