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जितने-जितने सभ्य / रमेश रंजक
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जितने-जितने सभ्य हुए हैं
सचमुच बहुत असभ्य हुए हैं !
इन्हें-उन्हें दे कर नज़राना
अपना खाना-पीना जाना
सुख-सुविधाओं की किश्तों में
जीना और महीना जाना
मानव होकर मानव के हित
कितनी बार अलभ्य हुए हैं !
सब जाना ज़िन्दगी न जानी
जड़ता में जड़ रही अजानी
पेट परम सुख के चक्कर में
कथा आधुनिक व्यथा पुरानी
जितनी गुण-ग्राहकता छीजी
अवगुण उतने भव्य हुए हैं !