भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
जिनगी रोटी ना हs / केशव मोहन पाण्डेय
Kavita Kosh से
जिनगी
खाली तइयार रोटी ना हऽ
पानी हऽ
पिसान हऽ
रात के अन्हरिया पर
टहकत बिहान हऽ
कुदारी के बेंट पर
ठेहा लागल हाथ हऽ
कोड़ झोर कइला पर
सगरो बनत बात हऽ
बैलन के जोत हऽ
हर हऽ
पालो हऽ
इहे रीत चलेला
अथक सालो-सालो हऽ
जे दुर्गुण के चेखुर
नोच-नोच फेंकेला
शीत-घाम-बरखा में
अपना देहिया के सेंकेला
ज्ञान-संस्कार के
खाद-पानी डालेला
निरख-निरख गेंहुआ के
जान के जोगे पालेला
बनरी आ मोंथा के
जामहूँ ना देला जे
नेह के पानी सींच-सींच
गलावे सगरो ढेला जे
ऊहे मधु-मिसरी
रोटिया में पावेला
इस्सर-दलिद्दर के
सबके ऊ भावेला
ऊहे बुझेला असली
मन-से-मन के भाषा का,
ऊहे बुझेला असल में
जिनगी के परिभाषा का?
त खेतवा बचाईं,
बचाईं किसान के
नाहीं तऽ,
हहरे के परीऽ सबके
एक चिटुकी पिसान के।