जिनगी रो गाड़ी / धीरज पंडित
चल-चल रे जिनगी रोॅ गाड़ी
पाछू मेॅ घर छै आगू मेॅ बाड़ी। चल-चल
हय जिनगी के गाड़ी मेॅ
बैठी केॅ पिछुआरी मेॅ।
कोय पियै सिगरेट
कोय होय जाय छै लेट।
सोची-सोची माथा ठोकी कानै छै अनाड़ी। चल-चल
हेकरोॅ इंजिन ढीला-ढाला
देखै मेॅ छै खुबै काला।
जेतना देबोॅ कोयला पानी
उतने फैलतोॅ खूब जवानी।
सीटी मारी आगू बढै़, देखै नय पिछाड़ी। चल-चल
हय जिनगी एक गाड़ी मानोॅ
लोगोॅ पर असवारी जानोॅ।
जे चलै छै लाईन सेॅ
उ कहै ठकुराईन सेॅ।
बैठी हेकरा दुनियाँ देखोॅ खोली केॅ केबाड़ी। चल-चल
टीशन पर नय समय गुजरोॅ
तोंय भारत के राज दुलारोॅ।
चलतेॅ जा जिनगी के नाम
करलेॅ जा तोंय बढ़िया काम।
देखी-देखी सब हुलसाबै, आँगन घर फूलबाड़ी। चल-चल
जखनी अइतों अंतिम टीशन
ई दुनिया से जाय के परमीशन।
लेखा-जोखा के परताप
दुनियाँ जानतोॅ अपने आप।
तोरा देखी दुनियाँ बढ़ै मानी केॅ अगाड़ी। चल-चल