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जिनसे जगती विषय-वासना / हनुमानप्रसाद पोद्दार
Kavita Kosh से
(राग परज-ताल कहरवा)
जिनसे जगती विषय-वासना, बुद्धि ग्रहण करती अविवेक।
मन-इन्द्रिय होते अधर्म-रत, त्याग शास्त्र-मर्यादा-टेक॥
बढ़ जाती अधर्म-रति, होने लगता सहज यथेच्छाचार।
अधःपात होता, जीवनमें बढ़ते दुःख-अशान्ति अपार॥
ऐसे प्राणि-पदार्थ, दृश्य, साहित्य, वस्त्र, आहार-विहार।
हैं ये सभी कुसंग, त्याज्य हैं, वृत्ति आसुरीके व्यवहार॥
बुद्धि विवेकवती हो, जिससे ऐसा हो साविक सत्सन्ग।
मन-इन्द्रिय संयत हों, उनपर चढ़े पवित्र धर्मका रंग॥
संयम-नियम धर्म-समत हों, मनकी वृत्ति ईश्वराकार।
सर्व भूत हित, जीवन जिससे बने शान्ति-सुखका आगार॥