भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
जिन्दगी लागै इक समन्दर रं / अमरेन्द्र
Kavita Kosh से
जिन्दगी लागै इक समन्दर रं
मोॅन थरथर करै छै कायर रं
दूर भै गेलै देवघरे सें शिव
मोॅन अभियो छै हमरोॅ काँवर रं
ऊ अनल पानिये दियेॅ पारेॅ
जेकरोॅ दिल में विरह छै बामर रं
हाथ मिलवै लेॅ जों बढ़ाबै छी
हाथ ओकरोॅ बढ़ै छै अजगर रं
कोय अकड़लोॅ होलोॅ अटट्ट रोटी
कोय धीयोॅ में फूली घीवर रं
मोॅन काँचे जकाँ छै जानी केँ
बात फेकै छोॅ कैन्हें पत्थर रं
देवता सृष्टि रोॅ मरी गेलै
भूत नांचै छै सब अखम्मर रं
लोग आबै सुतै चली दै छै
हम्में बिछलोॅ होलोॅ छी चादर रं
-12.8.91