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जियै लेली आतुर / अनिल कुमार झा
Kavita Kosh से
जो रे, जो रे, शिशिर तोहें आबे कत्ते अड़वै रे
हम्में ते वसंतोॅ से मिलै लेली आतुर,
आवेॅ कत्ते सतैबें तोय, पिया परदेश गेलै
शांत करैते के, हम्में जियै लेली आतुर
हेमंते हंकाय कहे आबे कोय कानोॅ नै
आबी गेलै समय सोहानोॅ दुखो भागथौं,
सुरूज चाँद रो मिलन आवेॅ भावै नै
तोरो मिलन मतुर होतै जग जानथौं,
शिशिर तोंय बीचे में आबी हमरा सताबै नै
दुर ई मन हमरोॅ मद पीयै लेली आतुर।
सबके घड़ी सोहनोॅ आबै छै, जानै छी
हमरो सोहानोॅ बीच फँसी गेले तोहें,
जबे जबे तड़पौं रे, जबे-जबे कलपौं
मधुर मदिर बोली हँसी गेले तोहें,
आबेे ते मोन प्राण तोंहि तजबैवें रे
अरे, छिकै ई कोॅन तंत जे जियै लेली आतुर।