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जिसको कहते है बनारस / नज़ीर बनारसी

मेरा दरवाज़ा खुला रहता है उसकी ख़ातिर
शहर भी जिसका है हक़दार, वह घर मेरा है
मुझ से सब पूछ मगर ऐब किसी के ना पूछ
सबके ऐबों को छुपाना ही हुनर मेरा है

जिसके पैर आठ पहर धोती हीै गंगा की लहर
जिसको कहते हैं बनारस वह नगर मेरा है
रात को तो घाट पर मिलकर लगे गाँजे की दम
सुबह को दोनों अलग मन्दिर मं वह मस्जिद में हम

गन्दगी लहरों को देखो ध्यान से प्यारे सनम
यह वही गंगा है हमने जिसकी खाई थी क़सम
यह हक़ीकत है हक़ीकत से किसी को कद नहीं
देश की तो हैं हदें आबादियों की हद नहीं

जब जगह होगी न रहने और सोने के लिए
आयेंगी नस्लें नई क्या दफ़न होने के लिए
साठ की उसकी कमाई और पचासी का खर्च
आदमी अच्छा था उसको घर की चिन्ता खा गई

कैसी-कैसी ज़ेहनियत अलगाववादी हो गई
कैसी-कैसी शख़्सियत फ़िरक़ापरस्ती खा गई
हारें भी तो हम अहले हिम्मत, हिम्मत कहीं हारा करते हैं
मायूस न होना ऐ मंज़िल, हम अज़्म दोबारा करते हैं

एक से एक ज़माने में शजर होता है
झुक के मिलता है वही जिसमें समर होता है
फ़तह, दिल जीतने वालों की हुआ करती है
सर के लेने से कहीं मारका सर होता है

शब्दार्थ
<references/>