जीती हूं बिंदास / संगीता शर्मा अधिकारी
हर वक्त क्यों बस यही एक बात 
बंद कर दो स्त्री विमर्श की बात 
अब मैं जीती हूँ बिंदास 
अपना-सा सीमातीत आकाश। 
घुस जाती हूँ भीड़ से 
खचाखच भरी बसों में 
मेट्रो में अब नहीं सताती 
किसी अनजान मर्द के 
बदन की बदबू मुझे 
अब उसके शीघ्रपतन के 
धब्बे छुड़ाने में नहीं रोती 
मैं अब ज़ार-ज़ार 
बल्कि अब देती हूँ मैं 
ऐसों के कान पर चार 
अब मैं जीती हूँ बिंदास 
अपना-सा सीमातीत आकाश। 
अखरता नहीं अब मुझे 
नाइट क्लबों में जाना 
ताश की अनगिनत बाजियाँ निपटाना 
सिगरेट के धुएँ का छल्ला बनाना 
जाम से जाम छलकाना
मनमर्जी का बेधड़क 
सांस फूलने जाने तक नाचना 
सीटियाँ बजाना, लतीफे सुनाना 
मनपसंद गाना, बेधड़ले से खिलखिलाना 
जो मन में आए करना 
नहीं डरना किसी से यूंही बिन बात 
अब मैं जीती हूँ बिंदास 
अपना-सा सीमातीत आकाश। 
पहनती हूँ अपने पसंद की 
लो वेस्ट जींस-नेकर 
विदाउट स्लीव्स वाला टॉप 
रखती हूँ डायटिशियन की नसीहतें 
पर खाती हूँ बर्गर पिज़्ज़ा भी बेभाव 
फर्क नहीं पड़ता अब मुझे 
किसी रोक-टोक से 
किसी भी तंज से दिन-रात 
अब मैं जीती हूँ बिंदास 
अपना-सा सीमातीत आकाश।
	
	