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जीवन सरिता की धारा है / रेनू द्विवेदी
Kavita Kosh से
जीवन सरिता की धारा है, कब इसमे ठहराव।
किन शब्दों में ढालू मैं अब, अंतर्मन के भाव।
भोर सुनहरी लेकर आती, नित-नित नयी उंमग।
सिंदूरी सन्ध्या ढ़ल जाती, है रातों के संग।
दो दिन के इस जीवन में है, पग-पग पर भटकाव।
किन शब्दों--
निशदिन चलता मंथन उर में, किसे दिखाऊँ पीर।
खुद को ही मैं खोज रही हूँ, भर आँखों में नीर।
खुशियाँ कम गम ज़्यादा देते, जीवन के बदलाव।
किन शब्दों में---
सच्चाई का मोल कहाँ अब, झूठ बहे अविराम।
दिल को छलनी कर जाते है, अपने लोग तमाम।
पीड़ा की अनुभूति अनूठी, करती मन में घाव।
किन शब्दों में---