भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
जूही फूलों की महक / अमरेन्द्र
Kavita Kosh से
जूही फूलों की महक आहट लिए
तुम तो आए थे ही, मैं ही सो रहा था।
मैं नहीं तब जानता था, गीत का मन
चाँदनी से है बना, इस प्रीत का मन
तुम तो हौले से हँसे थे, पास आकर
पर कहाँ इसका पता मुझको रहा था।
रूप का जादू खिला था, रूपवन में
बाँध कर सम्मोहनों का दल नयन में
तुम सुधा की धार बनकर सामने थे
प्यास से मैं ही न परिचित हो रहा था।
जब खुली आँखें, धुले थे सारे उबटन
गा रही थी सिसकियों में हवा समदन
फूल कुछ हाथों में थे सूखे हुए
और मैं बेबस बना-सा रो रहा था।