भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

जो कहलाती है वो कुशल गृहणी / सत्यनारायण स्नेही

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

भोर का तारा
अस्त होते ही
शुरु होता है उसका दिन
वह तपती पूरा जीवन
चूल्हे की पीठ पर
जब सोती है दुनिया
गहरी नींद में
वह सुलझाती
अगले कल का गणित।
रोटी, कपडा और मकान
जोड़ती टुकड़ा-टुकड़ा
वह करती मज़दूरी
दिन-रात करती काम
नहीं रहते उसके कोई शौक
न कोई मिज़ाज़
बच्चों के चेहरों में
निहारती हर दिन
सौंदर्य और शृंगार।
उसके लिए नहीं आते
तीज-त्योहार
नहीं बंटते
कोई उपहार
पतिव्रता
परंपरा की वाहक
घर की लक्ष्मी
खूंटे में बंधी
कामधेनू की तरह
गुज़ारती है
पहाड़ जैसा जीवन।
बच्चे के बस्ते में
ठूंस कर
अरमानों की दुनिया
कभी दीपावली के
जलते दीयों में
कभी बदलते
मौसम में
खुश भी हो जाती है
जो कहलाती है वह कुशल गृह्णी