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जो टकराता हर मोड़ पर / जया जादवानी
Kavita Kosh से
चलती हूँ तो लड़खड़ा कर गिरती हूँ
दौड़ती हूँ तो टकरा जाती हूँ
देखती हूँ इधर-उधर दाएँ-बाएँ
सोचती हूँ बच निकलने की हज़ार तरकीबें
गुज़रती हूँ आँख चुरा के
मिलती हूँ तो उधर देखती नहीं
हँसती हूँ तो कुआँ उगलता है हँसी
रोती हूँ तो निकलती हूँ आँख की सुरंग के उस पार
यह कौन है ख़ुदाया! जो टकराता हर मोड़ पर
कभी मरोड़ देता मेरा हाथ
तो गिर जाते शब्द
कभी लिखता है साथ मेरे
मेरी क़लम पकड़...।