जो बिन्ध गया, सो मोती
बिना बिन्धा । मोती
किस काम का
चाहे रहीम का हो
चाहे राम का !
अपने आप में था सिमटा
अपने होने में अकेला
चमक और रूप के रहते भी, वह
कहाँ था मोती
समुद्र की अक्षय आभा
पानी की तृप्तिकर तरलता
वह किसी का भी अपना न था
जहाँ भी था...
फिर चाह कर छिदा
सूई-सूई बिन्धा
धागा-धागा पुरा
प्रियतम की भेंट हो
ज्योति हुआ !
समुद्र ही बिन्धने को व्याकुल
द्वन्द्व में दिन-रात
कभी सीपी
कभी मोती हुआ...
मोती-मोती जुड़ा, तो माला हुआ !
अकेलेपन की
सूनी अन्धेरी रात में
दिन का उजाला हुआ !
मोती-मोती जुड़ा तो माला हुआ !...
बिन्धने पर
आती है दिव्य ज्योति...
जो बिन्ध गया वही मोती