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झुर झुर बहता पवन / विद्याधर द्विवेदी 'विज्ञ'

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झुर झुर बहता पवन – पुलक से भरा प्रात लहरा गया
आज माघ में फागुन का दिन आ गया

बीत गई जैसे कि शीत की साधना
जीत गई यह वासंती आराधना
पकड़ प्रात की बाँह कि जो कहने लगी -
‘आज तुझे देना है बड़ा उलाहना

छोड़ नींद में निर्मोही तू कौन देश में छा गया’
आज माघ में फागुन का दिन आ गया।

धरती और गगन के बीच खुली दूरी
भरा भरा सौभाग्य उषा का सिंदूरी
गम गम गमक उठी सुधियों की केतकी
या कि प्राण-मृग की फूटी है कस्तूरी

जिसे ढूँढता सा मेरा मन अपने ही भरमी गया
आज माघ में फागुन का दिन आ गया।

दिग्वधुओं ने पेड़ों पर ली अंगड़ाई
चल अंचल से खुली शिशिर की गहराई
डूबा मैं छन भर को डूब गई वाणी
पर बजती ही रही प्यार की शहनाई

चढ़कर जिसकी लय पर मेरा गीत नया स्वर पा गया
आज माघ में फागुन का दिन आ गया।