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झूठ मिटता गया देखते-देखते / 'सज्जन' धर्मेन्द्र
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झूठ मिटता गया देखते-देखते।
सच नुमायाँ हुआ देखते-देखते।
तेरी तस्वीर तुझ से भी बेहतर लगी,
कैसा जादू हुआ देखते-देखते ।
बोल कर ये ज़बाँ जो नहीं कह सकी,
आँख ने कह दिया देखते-देखते।
रंग मुझपे गुलाबी गिरा इस क़दर,
हो गया मैं हरा देखते-देखते।
वो दिखाने पे आए जो अपनी अदा,
मैं हुआ लापता देखते-देखते।