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झूला / कन्हैयालाल मत्त
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चलो, पार्क में झूला झूलें,
लूटें मौज- बहारें।
धरती से ऊँचे उठ-उठकर,
नभ का रूप निहारें।
लोहे के खम्भों पर लटका,
झूला है बरसाती।
ज़ँजीरों पर लटकी पटरी,
है मन को ललचाती।
ठण्डी-ठण्डी हवा निरन्तर,
लगती प्यारी-प्यारी।
भीनी-भीनी गन्ध लुटाती,
हँसती-सी फुलवारी।
पेंगें अपने-आप बढ़ाकर,
छू लें आज गगन को।
तन को तो उड़ने देना है,
सम्हालना है मन को।
नसें फड़कने-सी लगती हैं,
ख़ून रवानी करता।
नई ताज़गी मिल जाती है,
श्रम भी नहीं अखरता।