भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
टँगे हुए जाल / कुमार रवींद्र
Kavita Kosh से
रेत बहुत गहरे हैं
छिछले हैं ताल
ताक रहे सन्नाटे फावड़े-कुदाल
पपड़ाए चेहरों पर
टिकी हुई भूख
गहराते मेंहों की
साँस गई सूख
कौन कहे कितने हैं पथराए ताल
आँगन को अगियाती
रोज़ कड़ी धूप
पानी हैं माँग रहे
बौराए कूप
दिन कैसे गुजरेंगे - पूछते पुआल
दर्द ओढ़ सोते हैं
मछुआरे गाँव
झीलों से कहाँ गए
मछली के ठाँव
सोच रहे खूँटी पर टँगे हुए जाल