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टीस / संतोष श्रीवास्तव
Kavita Kosh से
कभी-कभी मैं
खुद को
तुम्हारे मोह भरे
शीशों में देखती हूं
जिसके अक्स में
मेरा ज़िद्दी लड़कपन
उम्मीदों की बेशुमार भीड़
थाह लेते सपने
बेवजह बदी जाती शर्तें
कैसी बचकानी
कि यह हो गया तो तुम मेरे
यह नहीं हुआ तो ...तो... तो
तब नहीं जाना था
कड़वे यथार्थ के पन्नों पर
लिखा मेरा अकेलापन ,संघर्ष
और मुट्ठी में दबी रेत सा
धीरे-धीरे
तुम्हें खोते चले जाना
अब भी हथेली की नमी में
रह गए इक्का-दुक्का रेत कण
बहुत टीसते है