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टूटे सपने / राजीव रंजन
Kavita Kosh से
काँटों के बिस्तर पर नींद
आँखों में बरसात लिए सो रही।
कागज की नाव पर सवार
भींगते, गलते सपने अपने
उबती-डुबती सी जिंदगी
बरसाती इन लहरों में खो रही।
काँटों के बिस्तर पर नींद
आँखों में बरसात लिए सो रही।
नए उगे पंख हौसलों के
पथरीले आसमान से टकरा रहे
अभी-अभी उगे तारे ख्वाबों के
मोतियों सा टूटकर बिखर रहे
बचपन हसरतों की दफन कर
यह जमीन अब बंजर सी हो रही।
अधूरे ख्वाब लिए काँटों में
उलझी कली चुपके-चुपके रो रही।
काँटों के बिस्तर पर नींद
आँखों में बरसात लिए सो रही।
बालू की भीत पर खड़ा
विश्वास लहरों में दफन हो रहा
कब्रिस्तान में खड़ी उम्मीद
न जाने आज किसका बाट जोह रही।
काँटों के बिस्तर पर नींद
आँखों में बरसात लिए सो रही।