टेलीफोन का बिल / निरंजन श्रोत्रिय
डाक से आने वाला यह कागज़
बिल है टेलीफोन का या
घर में होने वाली खटपट का द्वैमासिक दस्तावेज!
बजट से बाहर पसारता पैर
कागज का बेशर्म टुकड़ा
वसूली हवा में गुम हो गये शब्दों की
बिल के साथ नत्थी डिटेल्स ही
मूल में होते खटपट की
‘ये देखो तुम्हारे इतने-मेरे इतने’
संख्या, समय और यूनिट के आंकड़ों का
एक कसैला समीकरण
कुतरता घर के बटुवे को एक सिरे से!
‘करना चाहिये केवल ज़रुरी बात ही ’
की सार्वजनिक सीख
‘मेरे ही फोन होते हैं ग़ैर ज़रूरी’
के पलटवार से हो जाते परास्त।
समीकरण से चुनकर
उसके हिस्से के समय को
बदलता हूं मुद्रा में
और कोसता हूं अपने रिटायर्ड ससुर की बचत के लिये
की गई पहल को
बेटी बेटी ही होती है
शादी के बीस बरस बाद भी!
उसके हिस्से की इकाईयों में छुपा है
पिता के दमे और भाभी के बर्ताव का संताप
भतीजे के लिये एक तुतलाती भाषा भी दर्ज़ वहाँ
कुछ घरेलू नुस्खे....व्यंजन विधियाँ
कुछ निन्दा-सुख, कुछ दूरी का दुःख
यदि ध्यान से खंगालें उन ‘पल्सेज़’ को
तो सिसकियों का एक दबा संसार भी खुल सकता है वहाँ
इन सबके बरक्स
दूसरे हिस्से में थोथी गप्पें दोस्तों से
जो होती हैं ऊर्जावान मेरे हिसाब से
न जाने किस निष्कर्ष पर पहुंचेगा
टेलीफोन का बिल का यह तुलनात्मक अध्ययन!
एक दिन जब वह
होती है वहाँ
लगाता हूं एस टी डी
‘मेरे मोजे रखे हैं कहां?’