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डाकिये / श्रीविलास सिंह
Kavita Kosh से
हफ़्ते में एक बार आता था वह
कभी कभी
एक से ज्यादा बार भी
जब कोई टेलीग्राम हो,
अक्सर किसी दुःखद सूचना का
संदेश वाहक बन कर।
अपनी पीठ पर से
चिट्ठियों का थैला उतार
गुड़ खा कर लोटा भर पानी पीने के बाद
खबरें देता आस पड़ोस के गाँव-कस्बे की
तब जब खबरों के लिए
अखबार जरूरी नहीं थे।
कभी रात को रुकने पर
कहानियां भी सुनता
नीली आंखों वाली परियों और
पहाड़ की गुफा में बसने वाले राक्षस की
जिसकी जान तोते में होती थी।
अपनी स्मृतियों में यहां वहां छूट गई
तमाम चिट्ठियों का थैला लिए
हम भी हैं यात्रा में
समय के अपारदर्शी अंधेरों में
गुम हो जाने को एक दिन
जैसे गुम हो गयी धीरे से
जीवन से चिट्ठियां और
खाकी वर्दी वाले डाकिये भी।