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ढक्कन शीवर का / मुकेश कुमार सिन्हा

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ढक्कन सीवर का
भीमकाय वजन के साथ
ढके रहता है, घोर अँधेरे में
अवशिष्ट! बदबूदार!! उफ़!!

जोर लगा के हाइशा!
खुलते ही, बलबलाते दिख पड़े
कीड़े-पिल्लू! मल-मूत्र!
फीता कृमि! गोल कृमि आदि भी!!

रहो चिंतामुक्त!
नहीं बैठेगी मक्खियाँ नाक पर
आज फिर 'वो' उतर चुका है
अन्दर! बेशक है खाली पेट
पर, देशी के दो घूँट के साथ
वो आज फिर लगा है काम पर!!

सेठ! अमीर! मेहनतकश! किसान!
सभी अपने मेहनत का शेष
रखते हैं तिजोरी में!

एक लॉकर ये भी
शेष अवशेष का
कर रहा था, बेचारा हाथ साफ़
सडांध और दुर्गन्ध के बीच
चोरों की तरह, नशे के साथ
खाली पेट! दर्दनाक!!

आखिर भूख मिटानी जरुरी है
है न!