ढाबा : आठ कविताएँ-1 / नीलेश रघुवंशी
मोटरों के शोर और
बैलगाड़ियों की धीमी रफ़्तार के बीच था ढाबा।
सड़क किनारे लगा हैंडपंप
आसपास जिसके घूमती रहती गायें
खड़े रहते किनारे हाथ-ठेले और रिक्शे
टूटी-फूटी बैंचें
जिन पर बैठ बतियाते मंडी से आए थके-हारे लोग
दूर से ही मोटर-ट्रक ड्राइवर
जाने-अनजाने करते तय रुकेंगे अगले ढाबे पर।
होता था ढाबा थोड़ी देर के लिए उनका घर
खाते-खाते याद करते वे अपना आंगन।
कभी-कभार भूले-भटके आते ऎसे भी लोग
अपरिचित होते हैं जो ढाबे से
फिर भी
ढाबा उनके मन में कुछ कुरेदता
ले जाते वे अपने साथ कुछ स्मृतियाँ
जो शामिल होतीं उनके अच्छे दिनों में।
ढाबे पर सिंकती रोटियों की महक
और तपेले से उठती सब्ज़ी की भाप से चलती थीं हमारी साँसें
बने इसी भाप से बच्चों के खिलौने
तपते थे आग में हमारे चेहरे
थकते थे पावों के साथ-साथ कंधे
पानी से भरे बर्तनों के बोझ से
हमारे थके चेहरे देख पिघलती थी माँ की आखें
सिहरता था कहीं अंदर ही अंदर ढाबा
रहता हरदम साथ
हमारी कहानी-क़िस्सों के संग बदलता वह अपना रूप।
उदास होता हम में से कोई एक
ढाबा रहता बेताब करने उदासी को दूर
आधी रात को ढाबा बंद कर पहुँचते थे हम घर
ससुराल से आई बहनें रहती थीं प्रतीक्षा में
कुछ सोते कुछ जागते
रात जब निकल चुकी होती आधी
चाय पीते हुए पिता
सुनते क़िस्से बहनों की ससुराल के
बहनों के सुखी चेहरे देख
बढ़ता पिता के चेहरे का ताप
जो सोया हुआ होता जगाते उसे
कहता वह अपने सुख-दुख
करते सब मिलकर हँसी-ठिठोली
हम सबके साथ कहीं किनारे खड़ा रहता ढाबा प्रतीक्षा में
बहनें करती हैं कितना याद उसे अपनी ससुराल में।
ढाबे में बसे थे हम सब
हम सब में बसा था ढाबा
ढाबे से थोड़ी दूर था घर
ढाबे और घर के भीच का फ़ासला
करते थे हम पार लगभग दौड़ते हुए।