तप्तगृह / सर्ग 8 / केदारनाथ मिश्र 'प्रभात'
दिन-भर की धूल और
धुक्कड़ का अन्त हुआ
शांत हुआ उग्र ताप
ज्वालाम्य सूर्य का
शांत हुआ रौद्र रूप
भीषण प्रभंजन का
किन्तु निस्सीम शून्य
तब भी था गूँज रहा
श्री-विहीन धरती के
घोर हा-हा-रब से
तप्तगिरि-पुंज की
वेगमयी साँसों से
काँप-काँप उठता था
दिग्दिगन्त बार-बार।
पलकों की कर में
अश्रु का पराग लिये
साँझ आई धीरे से,
आती ज्यों मन्द चरण
सजला सहानुभूति
मन के करुण-शून्य
शांत रंगमंच पर
ओर डाल हल्की-सी
चादर तमिस्र की
मूर्च्छिता धरित्री के
धूसरित शरीर पर
लौट गई सपनों की
याद-सी सुहावनी।
सृष्टि का स्वभाव यही
आती सहानुभूति
एक पल रुकने को
और लौट जाती है
छोड़ दग्ध प्राणों की
पीर को कराहते।
सन्ध्या के जाने पर
उदित हुआ अम्बर के
कोने में चन्द्रमा
कोमल कलित कान्त
स्नेह के प्रकाश से
उज्ज्वल-सजल-स्निग्ध
करुणा की रश्मि से।
खोलकर अनन्त का
रहस्य-द्वार प्रकट हुई
चांदनी सितानना
जैसे रोक प्राणों को
पीड़ा के ज्वार को
लुटते सुहाग के
पास बैठ जाती है
आकर अधीर-सी
कोई सुहागिनी!
देकर पीयूष-पात्र
चाँदनी के कर में
इन्दु लगा शीतल जल
अविरल बरसाने
आतप के ताप से
तप्त कण-कण पर।
पाकर नवीन शक्ति
जागा उठी मूर्च्छा से
आग-भरे पथ की
सुहाग-भरी आशा
राग-भरे क्षण की
पराग-भरी भाषा
शेष अभिलाषा
विदग्ध अनुराग की
जाग उठा धरती के
पुलकों का गीत और
जाग उठा मूर्च्छित
अतीत वर्तमान के
अन्तिम सनेह की
क्षीणतम पुकार से।
धन्य है सहस्त्र बार
नभ का मयंक वह
बहुतदूर धरती से
बहुत र दुनिया से
फिर भी बरसाता है
अमृत-बूँद पीड़ित के
टीस-भरे घाव पर
मानव जब दानव की
मूर्ति बन जाता है!
धन्य है मयंक वह
और धिक् मानव को
आड़ में कला की जो
राहु को बुलाता है
कैसी जघन्य है
स्वार्थी मनुष्य की
हिंसक प्रवंचना
कैसी जघन्य यह
शोणित की प्यास है!
क्रूर कार्य अपना कर
नापित चला गया
मूर्च्छित नरेश के
निर्बल शरीर को
छोड़ उस नरक के
जलते-से अंग में।
आया शीतांशु तब
जिसके मयूखों की
पीयूष-धार से
शांत हुआ तप्तगृह
जननी की गोद-सा;
साथ शर्वरीश के
आई सुहागिनी
आँसू के दीप बाल
लुटते सुहाग की
आरती उतारने!
शीतल सनेह की
सुशीतल हिलोर से
लौट आई एक बार
संज्ञा नरेश की
और खोल नेत्र वे
देखने समौन लगे
मिटती-सी याद के
क्षीण आलोक में
सम्मुख दीवार थी
पत्थर की भीमकाय
जिससे टकराते थे
शून्य दृग उनके
मानो थे खोज रहे
कोई अशेष पथ
शेष पथ पार कर।
बैठी थीं पार्श्व में
कुशला विषाद की
निर्निमेष रेखा-सी
मानो हो भोर के
सपने की याद में
बैठी विभावरी
और फूल झड़ते हों
नयनों से, झड़ते ज्यों
सौ-सौ शिशिर-कण
व्योम-तरु-पत्र से।
अश्रु या कि मुक्ताहल
आजतक मूल्य लगा
जिनका न विश्व में
बहते थे धूल में
ठोकर से चूर हो!
पति की कराह सुन
कुशला सँभाल सकी
ज्वार को न मन के
बोल उठी उग्रतम
स्वर में उन्माद के-
”आती हुई आँधी की
गति को सँभालूँगी,
बुझने न दूँगी मैं
सूर्य को मगध के
आततायी कोणक का
खेल यह असह्य है
है असह्य दुरभिसंधि
दुष्ट देवदत्त की
मेरा ही रक्त आज
आग सर्वनाश की
चारों ओर फूँकता,
लेती हूँ शपथ मैं
एक घूँट में ही तो
उसको पी डालूँगी
‘देवदत्त चाहता है
रक्त बोधिसत्त्व का
रक्त निज पिता का है
चाहता अजातशत्रु।
मैं भी चाहती हूँ रक्त
कोणक का, क्या हुआ
यदि है उत्पन्न वह
मेरी ही कोख से?
शोणित का शोणित से
जाता चुकाया है
मूल्य इस जग में
मेरी पुकार सुन
आज राजगृह की
मिट्टी नहायेगी
शोणित में कोणक के
और भर अंजलि में
रक्त देवदत्त का
पूजूँगी आदर से
चरण बोधिसत्त्व के।“
बोले बड़े कष्ट से
बन्दी नरेश तब
”रक्त-पात,
हिंसा का व्रत जघन्य
पातक महान है;
उसपर भी रक्त-पात
अपने ही पुत्र का
सोच सकी कैसे तुम
बात यह मन में?
प्यार किया जिसको
दुलार किया झूम-झूम
ममता के रंग में,
वाणी में अस्फुट निज
माता कह बार-बार
जिसने अनजान-सा
झोर-झकझोर दिया
प्राणों के तार को,
भूमि से उठाकर तुम्हें
जिसने सुस्थान दिया
प्रथम-प्रथम गौरव का
आज उसी बेटे का
सोचती अनिष्ट तुम?
”और यह किसलिए?
चाहते प्रचार नहीं
हिंसा का बोधिसत्त्व,
उनको तो सृष्टि का
प्राणिमात्र प्रिय है
राज्य की न चाह मुझे
राज्य की न चाह तुम्हें
राज्य तो इसी प्रकार
बनता है, मिटता है,
कोणक को प्यास है
सत्ता की, जाने दो
प्यास यह एक दिन
स्वयं मिट जायगी!“
कुशला के क्रोध का
ताप पूर्ववत था
बोली वह-”ठीक है
राज्य की न चाह हमें
कोणक को आपने
राज्य किया अर्पण है
फिर भी वह रक्त क्यों
चाहता नरेश का
करता इतिहास क्यों
कलंकित मगध का?“
पीड़ा से चीख कर
उत्तर दिया नृप ने
”बात मत उठाओ तुम
मागध साम्राज्य के
महान इतिहास की;
मगध भाग्यशाली है
क्योंकि वह बुद्ध की
छाया में पलता है
कयोंकि महावीर के
सनेह का अशेष दान
पाकर प्रकाशपूर्ण
दीपक-सा जलता है;
युग-युग के अंग में
उसका अमिट चिह्न
और अधिकारी वह
अक्षय सुकीर्ति का।
”राज्य-क्रांति परिणति है
कतिपय घटनाओं की
जिनका सम्बन्ध हुआ
करता समाज से
और उन नियमों से
जिनसे समाज का
होता संचालन है
किंतु जब विकृत कर
उसके स्वरूप को
फैलती कुरीतियाँ
दुर्दम प्रवृत्तियाँ
नियमों से उसके जब
लगती निकलने है
भीषण दुर्गन्ध तब
आती है राज्य-क्रांति।“
”मैंने समाज की
सेवा की कौन-सी?
संकट हो, क्लेश हो
दुःख हो अशांति हो,
मैंने समाज को
पुकारा कब प्रेम से
मैंने समाज के
आँसू का मोल दिया
आँसू कब अपना?
”बोधिसत्त्व नेता है
ऐसे ही युग के,
और देवदत्त है
निष्ठुर प्रतीक उस
भीषण दुर्गन्ध का
जिससे समाज की
प्राण-वायु व्याकुल है
बोधिसत्त्व साधक हैं
देवदत्त बाधक है
जीवन में स्वार्थ और
हिंसा को साथ ले
बढ़ने को व्यग्र है;
हाथों में कोणक है
ढाल बन उसके!“
कुशला अडिग रहो
बोली सरोष वह
”यह तो विरोध नहीं
यह तो प्रतिरोध नहीं
यह तो समर्पण है!
मेरे विचार से
हिंसा ही एकमात्र
उतर है हिंसा का।“
बिम्बसार खोये-से
मौन कुछ देर रहे
शक्ति हुई जाती थी
क्षीण प्रत्येक क्षण,
पीड़ा असह्य थी
उनके शरीर में,
रह-रह कर आह निकल
आती थी गहरी,
किंतु स्वर पहले-सा
उनका गंभीर था,
और इसी स्वर में
पुनः लगे बोलने
”प्रतिशोध अस्त्र है
कायरों का जान लो,
हिंसा की आग से
तुम न रोक सकती हो
आना राज्य-क्रांति का
वह तो विपथगा है
आती इसी भाँति है,
और जब आती है
लेती बलिदान है
स्नान कर रक्त में
कोणक की राज्य-क्रांति
माँगती पुकार कर
दान मेरे रक्त का,
प्रस्तुत हूँ मैं सहर्ष
भेंट यह देने को!“
गहरी-सी सिसकी फिर,
चीख एक भारी-सी
और बिम्बसार घोर
मूर्च्छा में खो गए!
कुशला विक्षिप्ता-सी
”कोणक के जीवन का
उज्ज्वल भविष्य हो
साधना इसी की
कर्त्तव्य हो तुम्हारा
राष्ट्र के भविष्य की
लक्ष-लक्ष सुन्दरतम
आशाएँ फूल-सी
असमय ही सूखतीं
होता तुषार-पात
उनपर जब स्वार्थ का
अपने सनेह का
अंचल पसार दो
उनपर, भविष्य यही
चाहता स्वदेश का
जय हो तथागत की
जो मनुष्य-मात्र को
मानते समान हैं
जय हो मगध की
जिस पर तथागत का
पुण्य-वरद-हस्त है!“
अकस्मात मिट्टी का
दीपक जो पास ही
जलता था, बुझ गया
झोंका समीर का
जाने किस ओर से
आया कठोर एक
और वह तप्तगृह
अपने कलंक की
कालिख में डूबा-सा
मौन रहा देवता!!