तब कोई जय 'शंकर'... / शंकरलाल द्विवेदी
सिर्फ़ योजना बनीं..
	
(1)
सिर्फ़  योजना बनीं,  महज़ महलों में ख़ुशियाँ लाईं।
कहीं फूँस की कुटी अभी तक महल नहीं बन पाईं।।
(2)
ये  ज़िंदा  लाशों  के  मलबे,  हैं  उनकी  तस्वीरें।
जिनके  बलिदानों  से चमकीं  महलों  की  तकदीरें।।
(3)
रंग चाह का लाल;  मगर  मन  का  कागद मैला है।
तभी आज  हर चित्र  अधूरा, या  बन कर  फैला है।।
(4)
जब  मदिरा  वरदान  दे  रही  गंगा  के  पानी  का।
कैसे  हो  आभास  किसी  को  अपनी  नादानी  का।।
(5)
सुना कि, इनके ‘ताज’ ‘महल’ पर जब खरोंच पड़ती है।
मज़दूरों   की   छैनी,  पत्थर  तुरत  नया  जड़ती  है।।
(6)
वहीं  पास ‘विश्राम घाट’ पर  भी  देख  है  जा  कर।
नंगे  बदन  राख  बनते  हैं,  धू-धू  जली  चिता पर।।
(7)
दो  लाशों  के  लिए  मील भर  यह  दूधिया  सरोवर।
कोटि-कोटि  के  लिए  एक  ग़ज़ भर  हो गया समंदर।।
(8)
क्या  यह  पूजा  नहीं  वासना की  बूढ़ी काँठी की?
बेइज़्ज़ती  परिश्रम की,  जीवित  पुनीत  माँटी  की।।
(9)
युग  के  शाहजहाँ!  मैं  तुझसे  पूछ  रहा  हूँ तेरी।
‘क्यों न यहीं मुमताज महल की बनी कब्र की ढेरी’?।।
(10)
कहते  हो-  ‘कवि!  व्यर्थ तुम्हारी आँखें नम होती हैं।
बिना  कफ़न  वाली  लाशें  ही  यहाँ दफ़न  होती हैं।।
(11)
राम-राज्य के स्तंभ!   राम का तो यह न्याय नहीं था।
केशव  की  ‘गीता’  में भी  कोई  अध्याय  नहीं था।।
(12)
तुम  यथार्थ पूछो तो  कुत्सित  कागद  हो  रद्दी के।
बहुधा  यही  कहा  करते  हो  अधिकारी  गद्दी  के-
(13)
‘‘बदक़िस्मत कह कर, कभी किसी के पास नहीं आती है।
सुनते  हैं जनमत  छठे दिवस  माथे  में  लिख जाती है।। ’’
(14)
दुःख-सुख जैसा  लिखा  भाग्य में,  वैसा  भोग  रहे हैं।
जाने   ग्रह - नक्षत्रों  के  कैसे - कैसे  योग  रहे  हैं।।
(15)
दोष   पुराने   कर्मों  को,  संसर्गों   को   देते   हो।
‘वर्तमान  औरंगज़ेब’  वह   क़िला   गढ़े   लेते  हो-।।
(16)
‘शिवा’  सत्य  का  चूर-चूर  कर  देगा  अवसर पाते।
उस दिन ‘भूषण’ अमर बनेगा  यह सब लिखतेे - गाते।।
(17)
कितनी  कलियाँ  दबीं  साध की  शासन के  पाहन से।
लाशें  उठतीं  रहीं;  मगर  तू  हिला  नहीं  आसन से।।
(18)
और  कभी दे  भी  दीं तो  ख़ुशियों की  घड़ियाँ ऐसे।
विधवा   के  पावन   हाथों  को  हरी  चूड़ियाँ  जैसे।।
(19)
सूरज  चाहे  भी  तो  शबनम  का  क्या  ताप हरेगा?
मौत  हँसेगी, केवल  विधु  रह-रह  निःश्वास  भरेगा।।
(20)
तुम  मद  में, ये  दुःख  में,  दोनों  डूबे  कौन तरेगा?
डूबे  की  बाँहों  पर  डूबा  क्या  विश्वास  करेगा?।।
(21)
जब  अंबर  पर  अंधकार  का  पर्दा  पड़  जाता  है।
सूरज  के  माथे  कलंक  का  टीका  मढ़  जाता  है।।
(22)
तब  ये छोटे  दीप  धरा  को  जगमग  कर  देते  हैं।
रजनि - सुन्दरी  की  अलकों  में  हीरे  जड़ देते  हैं।।
(23)
सचमुच  वे  जो  आज  घृणा  के  पात्र  बने  बेचारे।
कल  वे  ही  विशाल  अंबर  के  होंगे  चाँद-सितारे।।
(24)
किसने  कहा  कि - ‘हमें  रोशनी से  कुछ  प्यार नहीं है?’	
है;  पर  मौत  किसी  भी  दीपक  की  स्वीकार  नहीं है।।
(25)
बात  न्याय  की  चली, कहा  तुमने- ‘सहयोग  नहीं  है’।
दुःखी  जनों  पर  यह  कोई  सच्चा  अभियोग  नहीं  है।।
(26)
गला  न्याय  का  कभी  तर्क  के  फंदे  से  मत  भींचो।
बहिरागत   जिह्ना   का   दुष्परिणाम   कभी   तो  सोचो।।
(27)
केंचुल    वाले   सर्प!   यही   वह  गाज  बनेगी  ऐसी।
एक  बार  हलचल  फिर  होगी ‘मनु’  के  शासन  जैसी।।
(28)
तब  कोई  जय  ‘शंकर’  फिर  से  ‘कामायनी’  लिखेगा।
किन्तु  पात्र  का  चयन  मात्र  इतना - सा  भिन्न  करेगा-
(29)
‘मनु’   होगा   मज़दूर,  ग़रीबी   ‘श्रद्धा’   बन   जाएगी।
शासक   पर   शासित   की  घोर  अश्रद्धा  हो  जाएगी।।
-8 जनवरी, 1964
	
	