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तमन्ना-ए-चराग़-ए-दीवाली / इस्मत ज़ैदी

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मैं चाहता हूँ जलूँ देश की हिफ़ाज़त में
मैं चाहता हूँ जलूँ इल्म की रेयाज़त में
मैं चाहता हूँ जलूँ अह्द की सदाक़त में
मैं चाहता हूँ जलूँ क़ौम की रेफ़ाक़त में

ये चाहता नहीं बैठूँ मैं शाहराहों पर
ये चाहता नहीं पहुँचूँ मैं ख़ानक़ाहों पर
मैं रौशनी जो बिखेरूँ तो ऐसी राहों पर
जहाँ से जाते सिपाही हों हक़ की राहों पर

मेरी ज़िया से हर इक सिम्त में उजाला हो
कि झूठ कोई नहीं सच का बोलबाला हो
मेरा वजूद ग़रीबों के घर का हाला हो
मेरी वो रौशनी पाए कि जो जियाला हो

मैं उन को रौशनी दूँ जो पढ़ें चराग़ों में
उन्हें दिखाऊँ ज़िया जो पले गुनाहों में
मैं इक मिसाल बनूँ ग़ैर के दयारों में
बसी हो प्रेम की बस्ती मेरे शरारों में

है अब यक़ीन कि पूरे करूँगा ये अरमाँ
बदलती फ़िक्र ने मंज़िल के दे दिए हैं निशां
मैं उन को याद दिलाऊँगा देश के एहसाँ
जो कर चुके हैं फ़रामोश अपनी धरती माँ