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तमाम दिनों की तरह / नवीन सागर
Kavita Kosh से
चोंच से गिरा हुआ दाना
आज मुझ से कुचल गया
चींटियों की एक कतार पर चलता रहा मैं आज
अपाहिज से टकराया
धरती पर थाप देती छोटे से बच्चे की हथेली पर
मेरा पॉंव पड़ गया.
किसी का आना देख
मेरे दरवाजे बंद हो गए
मैं आज कोई अजनबी नहीं था
ठीक यही था जो अभी इस अंधेरे में
सिगरेट की चिनगी के पास.
मेरी जिंदगी का यह एक दिन
मेरे तमाम दिनों की तरह है
और मैं इसी तरह रोज
जागता हुआ रात में सोचता हूं कि
मेरी जिंदगी का यह एक दिन
मेरे तमाम दिनों की तरह है.