भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

तला पै देखी बीरमती ना पाई / मेहर सिंह

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

बखत पड़े पै धोखा देगी आखिर थी जात लुगाई
तला पै देखी बीरमती ना पाई।टेक

पहलम तै मनै जाण नहीं थी मेरी जिन्दगी नै खार करैगी
जैसे कर्म करे पापण नै वैसा ही डंड भरैगी
कीड़े पड़कै डाण मरैगी केसर सिंह की जाई।

बेरा ना कुणसी कूट डिगरगी ईब कड़ै टोहले
गुदी पाच्छै मत बीरां की अक्ल मन्द न्यूं बोले
सरकी बन्द की गैल्यां होले जब लागै करण अंघाई।

मौसी नै घर तै कढ़वाया मेरी गैल्यां कोड करी
पिछले जन्म की बैरण थी कुछ राखी ना शर्म मेरी
दगाबाज धोखे की भरी या सदीयां तै जात बताई।

कितै भी ना रास्ता दिखै बैठ गया घिर कै
या तै मेरै पक्की जंचगी पैडां छुटै मर कै
मेहर सिंह जाट सबर कर कै फेर हो लिया राही राही।