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ताना-बाना टूट रहा है / राम सेंगर
Kavita Kosh से
ताना-बाना टूट रहा है
पड़े सुनाई तड़-तड़-तड़ है ।
ख़बर न सुघड़ी, गर्म हवा की
दरवाज़े पर भड़-भड़-भड़ है ।
गाँठिल हो, धरती को जकड़े
भ्रष्टाचार दूब की जड़ है ।
भट्ठा बैठा लोकतन्त्र का
पसरा धुआँ उड़े राखड़ है ।
मसले-जिरह-गोटियाँ-तिगड़म
संसद महज़ जुए का फड़ है ।
सम्प्रदाय के बने अखाड़े
हिज़ड़े मल्ल, न जाँघ, न धड़ है ।
सक्का राज अढ़ाई दिन का
दीखे भभ्भड़ ही भभ्भड़ है ।
जनता महाकाल की मारी
बनी बिचारी चमगीदड़ है ।
मुक्तिमार्ग सब बन्द पड़े हैं
गली-गली घुटनों कीचड़ है ।