भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
तारीफें बस बोलकर नहीं की जातीं / शिवांगी गोयल
Kavita Kosh से
शीशे के गिलास को थामे मेरी उंगलियाँ,
खुद से ज़्यादा खूबसूरत दिखती हुई
गिलास के आर-पार देखती मेरी नज़रें
समझती हैं कि पानी पारदर्शी होता है
पानी की एक बूंद, स्वाति नक्षत्र में
एक सीप में जाकर मोती बन जाती है;
वो मोती मेरी उंगली की अंगूठी में
मुस्कुरा कर देख रहा है उन आँखों को
जो सामने बैठी मुझे एकटक निहार रही हैं
उन अजनबी आँखों में चमक है
मैं पानी-सी पारदर्शी हो गई हूँ
मैंने अंगूठी का मोती देखते हुए
सिर्फ़ इतना समझा है कि
तारीफ़ें बस बोलकर नहीं की जातीं।