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तारों से / महेन्द्र भटनागर

तारक नभ में क्यों काँप रहे ?


क्या इनके बंदी आज चरण ?

अवरुद्ध बनी घुटती साँसें इन पर भी होता शस्त्र-दमन ?

क्या ये भी शोषण-ज्वाला से,

झुलसाये जाते हैं प्रतिपल ?

दिखते पीड़ित, व्याकुल, दुर्बल,

कुछ केवल कँपकर रह जाते,

कुछ नभ की सीमा नाप रहे !


क्या दुनिया वाले दोषी हैं ?

सुख-दुख मय जीवन-सपनों में जब जग सोया, बेहोशी है,

रजनी की छाया में जगती

सिर से चरणों तक डूब रही,

एकांत मौन से ऊब रही,

जब कण-कण है म्लान, दुखी; तब

ये किसको दे अभिशाप रहे ?


क्या कंपन ही इनका जीवन ?

युग-युग से दीख रहे सुखमय, शाश्वत है क्या इनका यौवन ?

गिर-गिर या छुप-छुप कर अविरल

क्या आँख-मिचौनी खेल रहे ?

स्नेह-सुधा की बो बेल रहे !

अपनी दुनिया में आपस में

हँस-हँस हिल अपने आप रहे !