तितली, तितली / अज्ञेय
तितली, तितली! इस फूल से उस पर, उस से फिर तीसरे पर, फिर और आगे, रंगों की शोभा लूटती, मधुपान करती, उन्मत्त, उद्भ्रान्त तितली!
मेरे इस सम्बोधन में उपालम्भ की जलन नहीं है। तितली! तुम्हारा जीवन चंचल, अस्थिर, परिवर्तन से भरा है, तुम दो पल भी एक पुष्प पर नहीं टिक सकतीं, तुम्हारी रसना एक ही रस के पान से तृप्त नहीं होती, एकव्रत तुम्हारे लिए असम्भव है किन्तु यह कह कर मैं प्रवंचना का उलाहना नहीं देना चाहता...
तुम ने यदि अपना जीवन संसार के असंख्य फूलों को समर्पित कर दिया है, तो मैं क्यों ईष्र्या करूँ? मैं ने तुम्हें गन्ध नहीं दी, तुम्हारे लिए मधु नहीं संचित किया। किन्तु तुम में गन्ध का सौरभ लेने की, मधु का स्वादन करने की, फूल-फूल कर उडऩे की, जो शक्ति है, वह तो मैं ने ही दी है! तुम्हारा यह अनिर्वचनीय सौन्दर्य, तुम्हारे पंखों पर के ये अकथ्य सौन्दर्यमय रंग- ये मेरे ही उपहार हैं। फिर मैं तुम्हारी प्रवृत्ति से ईष्र्या क्यों करूँ?
मैं मानो तुम्हारे जीवन का सूर्य हूँ। तुम सर्वत्र उड़ती हो, किन्तु तुम्हारी शक्ति का उत्स, तुम्हारे प्राणों का आधार, मैं ही हूँ- मेरी ही धूप में तुम इठलाती फिरती हो- मैं इसी को प्रतिदान समझता हूँ कि मेरे कारण तुम में इतना सौन्दर्य और इतना मधुर आनन्द प्रकट हो सकता है।
तितली, तितली!
दिल्ली जेल, 6 नवम्बर, 1932