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तिब्बत एक लोक कथा / सुदर्शन वशिष्ठ

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देखते हैं पिता जी मुझमें
अपना बीस साल पहले का चेहरा।

जब फड़कती थीं उनकी पिंडलियाँ
मापते थे पृथ्वी मीलों
नदियाँ फलाँगते थे
उठा लेते पहाड़ हाथों से।

मैं चाहता
हों पिता सबसे शक्तिशाली
पहाड़ से ऊँचे
आकाश से गंभीर
पृथ्वी से सहनशील
और पिता

हों चीते से फुर्तीले
बाज़ से तेज
शेर से आक्रमणकारी
संग्राम से डटे रहने वाले
हर वार सहने वाले
सेनापति हों विजेता हों
रथी हों महारथी हों
पिता न हों
लिजलिजे चिपचिपे कीड़े की तरह।
पिता तो जैसे थे वैसे ही थे
पिता ने की गलतियाँ
पछताये
पिता ने माँगी माफियाँ
घबराये
एक समय बाद पिता हुए निरर्थक।

जो नहीं कर सके पिता
चाहते,मैं करूँ
जो नहीं लिख पाये
चाहते,मैं लिखूँ
जहाँ नहीं चल सके
चाहते हैं, मैं चलूँ
जहाँ नहीं टिक सके
चाहते, मैं डटूँ
जहाँ नहीं कह पाये
चाहते,मैं कहूँ ।

मैं अब देखता हूँ
अपना बीस साल पुराना चेहरा
अपने पुत्र में
चाहता हूँ फिर खोलूँ
रूठ जाऊँ,खुद ही मानूँ
और कहूँ वह जो
अब कहना मुश्किल है।