भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
तिल तिल छीज रहा / सांवर दइया
Kavita Kosh से
अपने उन्माद में डूबी
बांसों उछलती लहरों को
मचल-मचल जाते देख
और भी सिहर-सिहर उठता हूं
पहले से ही भयभीत मैं
कहां तक टिक पाऊंगा
नित्य तिल-तिल छीज रहा
नोक –भर टिका-जुड़ा पुराना किनारा !
बांसों उछलती लहरों को देख
सिहर-सिहर उठता हूं मैं !