तीसरा पुष्प / महामंत्री से भेंट / आदर्श
अध्यक्ष श्री गुलाब-
कक्ष से निकल कर
सूर्यमुखी आगे बढ़ी
साथ लिए कवि को
मिलने के लिए
महामंत्री श्री कदंब कुलश्रेष्ठ से।
ऊँची तरु डाल पर
घिरे हुए
चाटुकार पक्षियों से
दिखलायी दिए महामंत्री वे
अपनी ही मादक महत्ता की
सुगंध में
डूबे हुए आप ही,
पता नहीं उनको था
कौन वहाँ आता है
और कौन जाता है,
उदासीनता की
भावना थी वहाँ
अहंकार मान लेना जिसको
स्वाभाविक था।
कवि को
परिस्थिति यह खली
लगी ठेस सी-
उसके स्वाभिमान को
फिर भी उठे क्रोध को
उसने दबाना ही
माना कल्याणकर।
भीड़ दरबारियों की
छंटी क्रम-क्रम से,
दृष्टि महामंत्री की
सूर्यमुखी और कवि
ओर गयी सहसा;
नमस्कार कर के तब
सूर्यमुखी ने कहा-
”मानवों के लोक से
आये ये कविवर;
देखने को पुष्पनगर निवासी,
पुष्प मंडल का
जीवन विधान
प्रिय शांति बसी जिसमें।
मोद मय झोंका लगा हवा का
हिले श्री कदंब और बोले-
”मानवों के मान्य कवि आप ने पधार कर
आदर दिया हमको
मानवों में ज्ञान और विज्ञान को
कोई भी कमी नहीं है,
केवल गुण ग्राहकता वश ही
पधारे आप
स्वागत है आपका।
शिशिर की ठंडी हवा
भाती नहीं पेड़ों को,
प्रेम उपजाती नहीं
उलटा बढ़ाती क्रोध,
होकर वे बावले से
पत्ते फेंक-फेंक कर
नंगे बन जाते हैं।
महामंत्राी स्वागत भी
इसी तरह
भाया नहीं कवि को,
क्रोध जो दबा पड़ा था
रुका नहीं रोकने से
फूट पड़ा
तीखी और तेजमयी
वाणी में ...
”महामंत्री, आया मैं,
सीखने के लिए ही
कुछ मर्म भरे तत्वों को
लेकिन जो देखता हूँ
ढंग आप लोगों का
उससे निराशा ही
हो रही है मुझको।
प्रेम पूर्ण सहजीवन
बली और दुर्बल का
आक्रमण हीनता में
निर्मल अहिंसा में
सब के विकास में
आदर की धारणा-
इन पर अवलम्बित जो
पंचशील माने गये
सुना था,
स्वीकार आप लोग
उन्हें करते।
किन्तु यहाँ उसका
सब उलटा ही देखता हूँ।
यह कह कवि मौन हुए,
जैसे आग बिजली की
भीतर छिपाये हुए
कभी-कभी मेघ
शांत, नीरव हो जाता है।
खाकर के चोट सी
बोले महामंत्री तब-
”कविवर! शरमिन्दा हूँ
बातें सुन आपकी,
इच्छा के विरुद्ध
कौन ऐसी बात हो गयी,
जिससे दिया
भारी इल्जाम यह आपने?“
कवि ने तब तुरन्त
दिया यह उत्तर-
”आप पूँछते हैं,
तो बताता हूँ, सुनिए-
नीचे मैं खड़ा हूँ
और आप
चढ़े ऊँचे पर,
नम्रता का क्या
यही है रूप पंचशील में?
देवता की तरह है
जो अतिथि पधारे कभी
सज्जन खड़े होकर
उसको बैठाते हैं,
भीतर से अहंकार
बाहर से नम्रता-
कपट का ढंग यह
और भी बढ़ाता क्रोध
इससे तो अच्छा है
खुला अपमान हो,
न कोई संदेह हो।“
”ठीक कहते हैं आप“
कहा महामंत्री ने,
”स्वागत में छल हो तो
त्यागने के योग्य वह,
कपट प्रवेश
कभी ठीक नहीं प्रेम में।
किन्तु अपराधी
मैं नहीं हूँ इस पाप का।
सत्य है, मैं
ऊपर से नीचे नहीं आ सका,
मेरे बंधनों को
आप नहीं जानते।
आसन जो छोड़ कर
नीचे गिर आऊँ मैं,
सेवा का क्षेत्र मेरा
होगा फिर संकुचित।
लेकर सुगंध मेरी
यहाँ से सहज ही
दूर दूर तक हवा
बाँटती है लोगों में,
नीचे मैं रहूँ तो
यह होगा नहीं संभव।
अपने कर्तव्य का भी
पालन करता हुआ
स्वागत करता हूँ
यदि सच्चा स्नेह लेकर
तो उसमें मुझे तो
कहीं ऐब नहीं दिखाता।”
”बंधन को लेकर भी
आप तो प्रसन्न हैं,
उत्कंठा आप में
दिखलायी नहीं पड़ती
बंधन से-
मुक्ति प्राप्त करने की,
यह तो है दासता,
पाता है राष्ट्र गति
जिसकी ही गति से,
दासता में मग्न हो
वही तो
क्या आशा भला
राष्ट्र के कल्याण की?
पंचशील जैसे उच्च सिद्धान्त
पायेंगे
कैसे उन्नति
भला ऐसे कार्यकर्ता से?“
कवि के इस उत्तर से
पहले निरुत्तर से
देख पड़े
बोले फिर भी कदंब-
‘कविवर!
मैं मुक्ति नहीं मानता हूँ उसको
जिसमें नहीं है शेष
कोई भी बंधन,
निर्विशेष,
अनासक्त, बंधन विहीन ब्रह्म
आप ऊब बंधन विहीनता से
ओढ़ता है बंधन को सुख से,
जैसे आम वृक्ष
अपने ही उन्माद से
मधु ऋतु के आने पर
इत्र से आमोदित सी
बौरों की चादर
सप्रेम ओढ़ लेता है।
बंधन के बिना मुक्ति
वैसे ही असार होगी
जैसे धान में से
कण चावल का
त्याग कर आप भूसी बनता है
मानवों के प्रतिनिधि!
दासता ही होती पास
मेरे यदि,
तो न कभी आते कृष्ण
छाया तले मेरी
आती नहीं गोपियाँ
स्वतंत्रता की प्यास लिए
रसिक कृष्ण साथ
रासलीला रचने।
एक बात और कहँू,
स्थान छोड़ अपना
कोई भी विश्व में
महत्व नहीं पा सका,
आप चढ़ जायें ऊँचे
और नीचे मैं चलूँ
समता की समस्या कभी
इससे न हल होगी।
पंचशील सिद्धान्त की
नहीं है मान्यता कि
पर्वत समुद्र बने
सिन्धु बने पर्वत
सच तो यही है,
हमें दोनों सदा चाहिए,
अपनी ही जगहों पर।
आशा है, बातें ये विचार कर
आप होंगे शांत चिरा
और पुष्प मंडल को
देंगे शुभ आशीर्वाद।“
प्रेम पूर्ण शब्दों में
महा मंत्रीवर का
सुन कर व्याख्यान यह
और पाकर आश्वासन
कहा तब कवि ने-
”कहना आप का
मुझे मान्य हुआ मंत्रीवर।
जीवन का एक गूढ़
ज्ञान यहाँ मिला मुझे।
जाना चाहता हूँ अब
अन्य मंत्रियों के पास
नमस्कार मेरा अब
अंगीकार कीजिए।“
खा कर हवा की धौल
हिले श्री कदंब
क्षमा याचना सी करने को,
हवा की सजगता से,
महामंत्रीवर की प्रमोदमयी मुद्रा से
होकर प्रभावित
सूर्यमुखी अनुगत हो
कक्ष में से निकले।