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तुम, पूछना अवश्य / प्रीति 'अज्ञात'

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ओह, मासूम बच्चे
ये उम्र नहीं थी तुम्हारी
इस तरह जाने की
अभी बस कल ही तो तुमने
माँ कहकर उसे गले लगाया होगा
और पापा की उंगली थामे
निकले होगे कभी शाम को
देखते होगे आश्चर्यचकित होकर
टुकुर-टुकुर आँखों से
पंछी, पौधे, नीला आकाश
कितने प्रश्न कौंधें होंगे
ह्रदय में तुम्हारे
जिनका उत्तर तुम्हें
मिलना ही चाहिए था

तुम्हें सीखनी थीं गिनतियाँ
कंठस्थ करनी थीं
कितनी ही बाल कवितायेँ
खींचनी थीं आड़ी-टेढ़ी लकीरें
पन्नों और दीवारों पर
भरने थे उसमें
अपनी कल्पनाओं के तमाम रंग
छुपना था कहीं किसी परदे के पीछे
और 'मैं यहाँ हूँ' कहकर
इठलाते हुए बाहर आना था
तुम्हें अपनी तोतली जुबाँ से करनी थी तमाम ज़िद
इस मीठी, सुनहरी हंसी से जीत लेनी थी दुनिया

लेकिन मेरे आयलान
ये दुनिया हंसती कहाँ है आजकल?
और न ही हंसने देती है किसी को
तभी तो छीन ली तुमसे
तुम्हारी खिलखिलाहट
और किनारे ला छोड़ा तुम्हें
निपट अकेला
उसी रेत पर
जहाँ टीले बनाने की उम्र थी तुम्हारी
तुम इस दुनिया में
कक्षा का पहला पाठ भी न
पढ़ सके
और देख ली, तुमने 'दुनियादारी'

काश, अब हम सब भी
न मुंह फेरें
रेत पर औंधे मुंह सोती हुई सच्चाई से
पुरानी कहावत हुई
कि "दर्द को महसूस किया जा सकता है
वो दिखता नहीं"
इधर तुम्हारी तस्वीर
कलेजा चीरकर रख देती है

ओ मेरे, नन्हे दोस्त
अलविदा तुम्हें!
लेकिन पूछना अवश्य
उस ईश्वर से
जो लहरें बन तुम्हें
इंसानियत की लाश ठेलता
तट तक बहा तो लाया
पर जीवित क्यूँ न रख सका?
उसकी न्याय की पुस्तक में
हर निर्णय देरी से ही क्यों आता है?
कैसे बर्दाश्त होती है उसे
किसी निर्दोष की निर्मम मौत?
क्यों बचा लेता है वो आततायियों को,
गुनाह के बाद भी
इक और गुनाह करने के लिए!
आख़िर, दूसरों के पापों की सजा
बेबस, मासूम लोग ही क्यों भुगतते हैं?