तुम्हारा जाना / रूपम मिश्र
कुछ तमाशे तुम्हें और देखने थे !
सारी मोहरें तुम्हारे हाथ में थीं
चाहते तो खेल शुरू होने पहले ख़त्म कर देते
पर कुछ तमाशे तुम्हें और देखने थे !!
मुझे मेरी ग़ैरतें याद दिलाने के लिए
मेरी चीख़ें, तुम्हारे लिए की गईं मेरी अरदासें
और भीगी आँखों बरसों जागती रातें
मेरे मुक़ाबिल रख दी जाती हैं
जी कुछ हल्का होने ही लगता है कि
तुम्हारा अपराध बोध
याद कर सब भारी हो जाता है !
पंछी के पंख को नमक के पानी से भिगोकर
कहा गया तुम उड़ क्यों नहीं जाती
मैंने तुम्हारे पर तो नहीं कतरे !
पर सम्भल कर उड़ना कहना नहीं भूले !
क्योंकि खेल तुम्हें कुछ देर और खेलना था !!
तुम्हारा विदा का चुम्बन इतना तप्त था कि
मेरे माथे पर दो प्यासे इन्द्रधनुष उग आए हैं
मैं उन चुम्बनों से अभी तक भीगी
अपनी पेशानी को रगड़कर पोछती हूँ !
छिलकर घाव बन गया पर नमी नहीं गई !
कभी उन लम्हों में गलीज भी लगा है
मुझमें ठहरा तुम्हारा वजूद
और तुमसे मेरी पहचान भी !
तुम्हारे बाद तुम्हारे शहर में घूम-घूम कर
सबसे तुम्हारा ज़िक्र किया !
ये एक तब्सिरा था
चाहती थी कि कोई तुम्हें फ़रेबी कहे
पर जो भी मिला तुम्हारा हमनवां या ख़ब्त-ख़याली मिला
ग़जब की यायावरी ओढ़ी, अय्यार, तुमने !
किसी के सामने भी मुखौटा नहीं उतारा !?